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रामचरित मानस


किष्किन्धाकाण्ड
बालि-सुग्रीव युद्ध, बालि उद्धार, तारा का
विलाप
दोहा:
* कह बाली सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।
जौ कदाचि मोहि मारहिं तो पुनि होरँ सनाथ।॥7॥
भावार्थ:-बालि ने कहा- हे भीरू! (डरपोक) प्रिये! सुनो, श्री
रघुनाथजी समदर्शी हैं। जो कदाचित् वे मुझे मारेंगे ही तो मैं
सनाथ हो जाऊँगा (परमपद पा जाऊँगा)॥7 ॥
चौपाई :
* अस कहि चला महा अभिमानी। तृन समान सुग्रीवहि
जानी॥
भिरे उभौ बाली अति तर्जा। मुठिका मारि महाधुनि गर्जा॥
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भावार्थ:-ऐसा कहकर वह महान् अभिमानी बालि सुग्रीव
को तिनके के समान जानकर चला। दोनों भिड गए। बालि
ने सुग्रीव को बहुत धमकाया और घँसा मारकर बड़े जोर से
गरजा।॥1॥
* तब सुग्रीव बिकल होइ भागा। मुष्टिप्रहार बज सम
लागा।॥
मैं जो कहा रघुबीर कृपाला। बंधु न होइ मोर यह काला॥

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